Monday, May 9, 2011


आखिर कहां थे… ?

लोकपाल विधेयक और अन्ना हजारे

विशाल धर दुबे--

देश में आजादी के बाद भरत विकास की ओर उन्मुख जरुर हुआ लेकिन उसी के साथ देश में भ्रष्टाचार पौधा भी पनपता रहा। किसी ने भी नहीं सोचा था भ्रष्टाचार की जड़ इतनी मजबूत हो जायेगी कि देश के हर एक तंत्र में नासूर बन जायेगा। आज भारत भ्रष्टाचार की श्रेणी में अग्रणी है क्योंकि भारत का काला धन स्विस बैंक में सबसे अधिक है। यही वजह है कि देश का बच्चा-बच्चा यही चाहता है कि देश में व्याप्त भ्रष्टाचार जल्द से जल्द समाप्त हो जिसका मिशाल दिल्ली के जन्तर मन्तर पर देखने को मिला। भ्रष्टाचार के खिलाफ बाबा रामदेव के बाद धूमकेतु की तरह अचानक बाबूराव (अन्ना) हजारे अवतरित हुए तो पूरा हिन्दुस्तान अन्ना के समर्थन में उमड़ पड़ा। अन्ना के आन्दोलन ने केन्द्र सरकार की सांसे रोक दी क्योंकि उनके समर्थन में पूरा हिन्दुस्तान सड़क पर उतर पड़ा। "जन लोकपाल विधेयक" की मांग को लेकर अनना हजारे पांच दिन तक जन्तर-मंतर पर पर अड़े रहे, आखिर कार सरकार अन्ना हजारे की सभी सर्तों को मानते हुए उनका अनसन तोड़वाया गया और गांधीवादी अन्ना हजारे की जीत हुई।

कौन हैं अन्ना ?

अन्ना का जन्म 15 जून 1938 को महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के रालेगाँव सिद्धी नाम के गाँव में एक कृषक परिवार में हुआ था। परिवार की कमजोर आर्थिक स्थिति के कारण अन्ना पढ़ नहीं पाए। 1963 में भारत-चीन युद्ध के दौरान वह भारतीय सेना में एक ड्राइवर के रूप में शामिल हुए। कहते हैं की 1965 में खेमकरण सेक्टर में पाकिस्तान के साथ हुए युद्ध में भारतीय सैनिकों के शहीद होते देख वे बड़े व्यथित हुए, इसी दौरान उन्होंने स्वामी विवेकानंद, महात्मा गांधी व आचार्य विनोबा भावे के बारे में अध्ययन किया और बेहद प्रभावित हुए। 1975 में वह सेना से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेकर अपने गाँव लौट आये और वहां ग्रामीणों को नहर और बाँध बनाकर पानी का संग्रह करने की प्रेरणा दी। उन्होंने साक्षरता कार्यक्रम भी चलाये, जिनसे वह देश भर में मशहूर हुए। उन्होंने पहला आन्दोलन महाराष्ट्र के वन विभाग के खिलाफ किया व सफल रहे। पूर्व में वह 10 बार आमरण अनशन कर चुके हैं। 1991 में अन्ना हजारे ने "भ्रष्टाचार विरोधी जन आन्दोलन" का गठन किया, 97 में सूचना का अधिकार माँगते हुए आन्दोलन चलाया, जिस पर पहले महाराष्ट्र और फिर 2005 में केंद्र सरकार को "सूचना का अधिकार" लाना पड़ा।

42 सालों से लोकपाल विधेयक कानून का रूप नहीं ले पाया।

लोकपाल का इतिहास: स्कैंडीनेवियाई देशों में स्थापित किए गए ओम्बुड्समैन की तर्ज पर भारतीय लोकपाल की परिकल्पना की गई। स्वीडन में ओम्बुड्समैन की स्थापना 1809 में ही की जा चुकी थी। इसके तुरंत बाद कई देशों में अधिकारी वर्ग के रवैये से लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए इस तरह की संस्था का सूत्रपात किया गया। 'ओम्बुड्समैन' एक स्वीडिश शब्द है जिसका मतलब 'विधायिका द्वारा नियुक्त एक ऐसा अधिकारी जो प्रशासकीय और न्यायिक प्रक्रियाओं से संबंधित शिकायतों का निपटारा करे।'

60 के दशक की शुरुआत में देश के प्रशासनिक ढांचे में जड़ जमाते भ्रष्टाचार से यहां पर स्कैंडीनेवियाई देशों के जैसे ओम्बुड्समैन की जरूरत महसूस की गई। मोरारजी देसाई की अध्यक्षता में पांच जनवरी 1966 को प्रशासकीय सुधार आयोग का गठन किया गया। इस आयोग ने अपनी सिफारिशों में एक द्वि-स्तरीय प्रणाली के गठन की वकालत की। इस द्वि-स्तरीय प्रणाली के तहत केंद्र में एक लोकपाल और राज्यों में लोकायुक्तों की स्थापना पर जोर दिया गया था। सरकार ने पहला लोकपाल और लोकायुक्त विधेयक 1968 में पेश किया। सरकारें आती गईं और जाती गईं, लेकिन भ्रष्टाचार से लड़ने की दृढ़ इच्छाशक्ति की कमी के चलते पिछले 42 सालों से लोकपाल विधेयक कानून का रूप नहीं ले पाया।

1968 में पहली बार इस विधेयक को चौथी लोकसभा में पेश किया गया। इस सदन से यह विधेयक 1969 में पारित भी हो गया लेकिन राज्यसभा में अटका रहा। इसी बीच लोकसभा के भंग हो जाने के चलते यह विधेयक पहली बार में ही समाप्त हो गया। इस विधेयक को एक बार नए सिरे से 1971, 1977, 1985, 1989, 1996, 1998, 2001, 2005 और हाल ही में 2008 में संसद में पेश किया गया, लेकिन हर बार इसे किसी न किसी वजह के चलते फंसना पड़ा। हर बार पेश करने के बाद इस विधेयक में सुधार के लिए या तो किसी संयुक्त संसदीय समिति या गृह मंत्रालय की विभागीय स्थायी समिति के पास भेजा गया। और जब तक इस विधेयक पर सरकार कोई अंतिम निर्णय ले पाती सदन ही भंग हो गया।

प्रधानमंत्री, मंत्री और सांसदों के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामलों पर कार्रवाई की ताकत देने वाला लोकपाल विधेयक कई बार सरकार द्वारा सदन में पेश किया गया। लेकिन हर बार विधेयक के औंधे मुंह गिरने की वजह दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी के अलावा हमारे राजनेताओं के मंसूबों की भी पोल खोलती है। संक्षिप्त समय वाली इंद्रकुमार गुजराल की सरकार ने भी इस विधेयक को पेश करने का साहस दिखाया। 1996 में पेश किया गया यह विधेयक पांचवीं बार गिरा। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने 1998 में और 2001 में इसे पारित कराने का असफल प्रयास किया। सितंबर 2004 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भरोसा दिलाया कि कांग्रेस के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार इस विधेयक को अमल में लाने के लिए समय नष्ट न करते हुए शीघ्र लाएगी। यह बात और है कि बहुदलीय सरकार की व्यवस्था में पारदर्शिता से परहेज के दबाव ने अभी तक इस विधेयक का मार्ग प्रशस्त नहीं किया है।

जन लोकपाल विधेयक के मुख्य बिन्दु

-इस कानून के तहत केंद्र में लोकपाल और राज्यों में लोकायुक्त का गठन होगा।

-यह संस्था चुनाव आयोग और उच्चतम न्यायालय की तरह सरकार से स्वतंत्र होगी।

-किसी भी मुकदमे की जांच एक साल के भीतर पूरी होगी। ट्रायल अगले एक साल में पूरा होगा।

-भ्रष्ट नेता, अधिकारी या जज को 2 साल के भीतर जेल भेजा जाएगा।

-भ्रष्टाचार की वजह से सरकार को जो नुकसान हुआ है अपराध साबित होने पर उसे दोषी से वसूला जाएगा।

-अगर किसी नागरिक का काम तय समय में नहीं होता तो लोकपाल दोषी अफसर पर जुर्माना लगाएगा जो शिकायतकर्ता को मुआवजे के तौर पर मिलेगा।

-लोकपाल के सदस्यों का चयन जज, नागरिक और संवैधानिक संस्थाएं मिलकर करेंगी। नेताओं का कोई हस्तक्षेप नहीं होगा।

-लोकपाल/ लोक आयुक्तों का काम पूरी तरह पारदर्शी होगा। लोकपाल के किसी भी कर्मचारी के खिलाफ शिकायत आने पर उसकी जांच 2 महीने में पूरी कर उसे बर्खास्त कर दिया जाएगा।

-सीवीसी, विजिलेंस विभाग और सीबीआई के ऐंटि-करप्शन विभाग का लोकपाल में विलय हो जाएगा।

-लोकपाल को किसी भी भ्रष्ट जज, नेता या अफसर के खिलाफ जांच करने और मुकदमा चलाने के लिए पूरी शक्ति और व्यवस्था होगी।

जन लोकपाल बिल की प्रमुख शर्तें

न्यायाधीश संतोष हेगड़े, प्रशांत भूषण और अरविंद केजरीवाल द्वारा बनाया गया यह विधेयक लोगों द्वारा वेबसाइट पर दी गई प्रतिक्रिया और जनता के साथ विचार-विमर्श के बाद तैयार किया गया है। इस बिल को शांति भूषण, जे एम लिंग्दोह, किरण बेदी, अन्ना हजारे आदि का समर्थन प्राप्त है। इस बिल की प्रति प्रधानमंत्री और सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों को एक दिसम्बर को भेजा गया था। बिल के मसौदा पर एक नजर....

1. इस कानून के अंतर्गत, केंद्र में लोकपाल और राज्यों में लोकायुक्त का गठन होगा।

2. यह संस्था निर्वाचन आयोग और सुप्रीम कोर्ट की तरह सरकार से स्वतंत्र होगी। कोई भी नेता या सरकारी अधिकारी की जांच की जा सकेगी

3. भ्रष्टाचारियों के खिलाफ कई सालों तक मुकदमे लम्बित नहीं रहेंगे। किसी भी मुकदमे की जांच एक साल के भीतर पूरी होगी। ट्रायल अगले एक साल में पूरा होगा और भ्रष्ट नेता, अधिकारी या न्यायाधीश को दो साल के भीतर जेल भेजा जाएगा।

4. अपराध सिद्ध होने पर भ्रष्टाचारियों द्वारा सरकार को हुए घाटे को वसूल किया जाएगा।

5. यह आम नागरिक की कैसे मदद करेगा: यदि किसी नागरिक का काम तय समय सीमा में नहीं होता, तो लोकपाल जिम्मेदार अधिकारी पर जुर्माना लगाएगा और वह जुर्माना शिकायतकर्ता को मुआवजे के रूप में मिलेगा।

6. अगर आपका राशन कार्ड, मतदाता पहचान पत्र, पासपोर्ट आदि तय समय सीमा के भीतर नहीं बनता है या पुलिस आपकी शिकायत दर्ज नहीं करती तो आप इसकी शिकायत लोकपाल से कर सकते हैं और उसे यह काम एक महीने के भीतर कराना होगा। आप किसी भी प्रकार के भ्रष्टाचार की शिकायत लोकपाल से कर सकते हैं जैसे सरकारी राशन की कालाबाजारी, सड़क बनाने में गुणवत्ता की अनदेखी, पंचायत निधि का दुरुपयोग। लोकपाल को इसकी जांच एक साल के भीतर पूरी करनी होगी। सुनवाई अगले एक साल में पूरी होगी और दोषी को दो साल के भीतर जेल भेजा जाएगा।

7. क्या सरकार भ्रष्ट और कमजोर लोगों को लोकपाल का सदस्य नहीं बनाना चाहेगी? ये मुमकिन नहीं है क्योंकि लोकपाल के सदस्यों का चयन न्यायाधीशों, नागरिकों और संवैधानिक संस्थानों द्वारा किया जाएगा न कि नेताओं द्वारा। इनकी नियुक्ति पारदर्शी तरीके से और जनता की भागीदारी से होगी।

8. अगर लोकपाल में काम करने वाले अधिकारी भ्रष्ट पाए गए तो? लोकपाल/लोकायुक्तों का कामकाज पूरी तरह पारदर्शी होगा। लोकपाल के किसी भी कर्मचारी के खिलाफ शिकायत आने पर उसकी जांच अधिकतम दो महीने में पूरी कर उसे बर्खास्त कर दिया जाएगा।

9. मौजूदा भ्रष्टाचार निरोधक संस्थानों का क्या होगा ? सीवीसी, विजिलेंस विभाग, सीबीआई की भ्रष्टाचार निरोधक विभाग (एंटी कारप्शन डिपार्टमेंट) का लोकपाल में विलय कर दिया जाएगा। लोकपाल को किसी न्यायाधीश, नेता या अधिकारी के खिलाफ जांच करने व मुकदमा चलाने के लिए पूर्ण शक्ति और व्यवस्था भी होगी।

सरकारी बिल और जनलोकपाल बिल में मुख्य अंतर

सरकारी लोकपाल के पास भ्रष्टाचार के मामलों पर ख़ुद या आम लोगों की शिकायत पर सीधे कार्रवाई शुरु करने का अधिकार नहीं होगा. सांसदों से संबंधित मामलों में आम लोगों को अपनी शिकायतें राज्यसभा के सभापति या लोकसभा अध्यक्ष को भेजनी पड़ेंगी. वहीं प्रस्तावित जनलोकपाल बिल के तहत लोकपाल ख़ुद किसी भी मामले की जांच शुरु करने का अधिकार रखता है. इसमें किसी से जांच के लिए अनुमति लेने की ज़रूरत नहीं है सरकार द्वारा प्रस्तावित लोकपाल को नियुक्त करने वाली समिति में उपराष्ट्रपति. प्रधानमंत्री, दोनो सदनों के नेता, दोनो सदनों के विपक्ष के नेता, क़ानून और गृह मंत्री होंगे. वहीं प्रस्तावित जनलोकपाल बिल में न्यायिक क्षेत्र के लोग, मुख्य चुनाव आयुक्त, नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक, भारतीय मूल के नोबेल और मैगसेसे पुरस्कार के विजेता चयन करेंगे ।

राज्यसभा के सभापति या स्पीकर से अनुमति

सरकारी लोकपाल के पास भ्रष्टाचार के मामलों पर ख़ुद या आम लोगों की शिकायत पर सीधे कार्रवाई शुरु करने का अधिकार नहीं होगा. सांसदों से संबंधित मामलों में आम लोगों को अपनी शिकायतें राज्यसभा के सभापति या लोकसभा अध्यक्ष को भेजनी पड़ेंगी.वहीं प्रस्तावित जनलोकपाल बिल के तहत लोकपाल ख़ुद किसी भी मामले की जांच शुरु करने का अधिकार रखता है. इसमें किसी से जांच के लिए अनुमति लेने की ज़रूरत नहीं है.सरकारी विधेयक में लोकपाल केवल परामर्श दे सकता है. वह जांच के बाद अधिकार प्राप्त संस्था के पास इस सिफ़ारिश को भेजेगा. जहां तक मंत्रीमंडल के सदस्यों का सवाल है इस पर प्रधानमंत्री फ़ैसला करेंगे. वहीं जनलोकपाल सशक्त संस्था होगी. उसके पास किसी भी सरकारी अधिकारी के विरुद्ध कार्रवाई की क्षमता होगी.सरकारी विधेयक में लोकपाल के पास पुलिस शक्ति नहीं होगी. जनलोकपाल न केवल प्राथमिकी दर्ज करा पाएगा बल्कि उसके पास पुलिस फ़ोर्स भी होगी.सरकारी विधेयक में लोकपाल केवल परामर्श दे सकता है. वह जांच के बाद अधिकार प्राप्त संस्था के पास इस सिफ़ारिश को भेजेगा. जहां तक मंत्रीमंडल के सदस्यों का सवाल है इस पर प्रधानमंत्री फ़ैसला करेंगे. वहीं जनलोकपाल सशक्त संस्था होगी. उसके पास किसी भी सरकारी अधिकारी के विरुद्ध कार्रवाई की क्षमता होगी.सरकारी विधेयक में लोकपाल के पास पुलिस शक्ति नहीं होगी. जनलोकपाल न केवल प्राथमिकी दर्ज करा पाएगा बल्कि उसके पास पुलिस फ़ोर्स भी होगी।

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