Monday, May 16, 2011

1894 कानून की आड़ में खूनी संघर्ष

आखिर कौन है जिम्मेदार...?

विशाल धर दुबे

उत्तर प्रदेश मे अलगअलग स्थानों पर कई बार खूनी होली खेली गयी है। हर बार प्रशासन व किसान आमने-सामने रहा है, इस खूनी संघर्ष की वजह क्या है शायद किसी के पास इसका जवाब नहीं हैं, जितने लोग हैं सबका
अपना अपना तर्क है, कोई प्रशासन को दोषी ठहराता है तो कोई शासन को कोई 1894 के कानून को आखिर कौन है जिम्मेदार
…..? किसानों और प्रशासन के बीच छिड़े महासंग्राम में खून तो दोनों पक्ष का बहता है सवाल ये है कि खूनी संग्राम रुकने का नाम क्यों नहीं ले रहा है जितनी बार खूनी संघर्ष हुआ हर बार भूमिअधिग्रहण कानून 1894 को ही जिम्मेदार बताया जाता है। इस कानून में संशोधन तो केन्द्र में बैठी सरकार ही कर सकती है। सबसे बड़ा सवाल तो ये है कि भूमि अधिग्रहण कानून तो पूरे देश में लागू लेकिन सबसे अधिक हिंसा उत्तर प्रदेश में ही क्यों हो रही है ? यहां के किसान ही सबसे अधिक पीड़ित क्यों हैं। वजह साफ है, यूपी में किसानों की बेसकीमती जमीन को कौड़ियों के भाव में अधिग्रहण कर मुनाफाखोरी के लिए बिल्डरों को हाथ बेच दिया जा रहा है और किसानों के आपत्ति को भी नहीं सुना जा रहा है। सवाल ये है कि क्या 1894 के कानून में क्या ये भी लिखा है कि महिलाओं और बच्चों पर जुल्म किया जाय, आगजनी किया जाय और फिर भी किसान अपनी जमीन का मुआवजा मांगें तो उनपर मुकदमा लगकर उन्हें बेघर कर दिया जाये, ऐसे कई सवाल हैं जिसका जवाब शायद किसी के पास हो। किसी ने कहा है कि जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादिगरीयसी, किसानों की बेसकीमती जमीन उनके लिए सवर्ग के समान है लेकिन उनसे जबरन अधिग्रहण किया जा रहा है। अगर यहां पर काम करने वाले लाल फीताशाही वर्ग जरा हटकर किसानों के तरफ खड़े होकर देखें तो उन्हें भी सबकुछ सामने दिख जायेगा कि किसनों की मांग गलत नहीं हैं। 1894 के कानून के आड़ में सत्ता पर काबिज सफेदपोश ने सत्ता का दुरुपयोग करते हुए कई बार किसानों का खून बहाया है। कई बार नौकरशाह को मजबूर होना पड़ता है कारवाई करने के लिए। आखिर ऐसे हालात से कैसे निपटा जाये ? टप्पल, मथुरा और घोड़ी बछेड़ा कांड को किसान भूल भी नहीं पाये थे कि 7 मई को भट्टा पारसौल गांव में किसानों के खून से जमीन एक बार फिर लाल हो गयी। इस हादसे का दोसी कौन था क्या लाल फीताशाही या 1894 का कानून या भ्रष्टतंत्र..? इस पूरे हादसे में हमारा सिस्टम कहीं न कहीं दोसी है। किसानों पर लाठियां बरसी और किसान गोलियां भी खाई, सवाल ये है कि कोई हो या न हो लेकिन मिशन 2012 को लेकर कई राजनीतिक पार्टियां अपनी-अपनी रोटियां जरुर सेंक रही हैं। अब किसानों के जमीन पर कई राजनीतिक पार्टियां और राजनेता अपनी जमीन तलाश रहे हैं। देखना ये होगा कि किस राजनेता के हिस्से में कितनी जमीन हाथ लगती है। 1894 के कानून में परिवर्तन करना तो केन्द्र के हाथ में है लेकिन राज्य सरकार को इसके लिए दबाव बनाना चाहिए। लेकिन राज्य सरकार ऐसा नहीं कर रही है वो जानती है कि अगर कानून में बदलाव होगा तो उसकी तिजोरी कैसे भरेगी और प्राधिकरण में दलाली कैसे होगी। बड़े-बड़े बिल्डरों से मोटी रकम कैसे उगाही की जायेगी। ग्रेटर नोएडा के किसनों का जो हालात आज हुआ है उसके लिए नीचे से लेकर ऊपर तक बैठे भ्रष्टतंत्र है। प्रशासन लगातार पूरे मामले में असामाजिक तत्व को ही दोसी ठहराता रहा है लेकिन सच तो ये है असामाजिक तत्व के साथ भ्रष्ट अधिकारी भी इसके लिए कम जिम्मेदार नहीं हैं। इलाहाबाद हईकोर्ट ने ग्रेटर नोएडा में जमीन अधिग्रहण के कुछ हिस्से पर रोक लगाकर बिल्डरों और प्राधिकरण के लिए मुशीबत जरुर खड़ी कर दी है, क्योंकि हजारों लोग जो लाखों रुपया लगाकर आशियाना देख रहे थे उनके लिए मुशीबत जरुर खड़ी हो गयी है।

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